Tuesday, January 19, 2016

"अब ईक्कीसवी सदी आई"

"अब ईक्कीसवी सदी आई"


ये कविता नही 
एक गांव है इक्कीसवी सदी का 
जिसमें आसरे है फेरई हैं नेपन है 
लुटई लुटावन और मोहन हैं
झुग्गी है झोपड़ी है 
बोझ ढोती खोपड़ी है
मालिक हैं जमीनदार हैं
गैने की बीबी काफी दिनों से बीमार हैं
मालिक का कर्जा है
एक चारपाई है
मोहन की विटिया
काफी देर रात घर आई है
सात बच्चे है
तीन ठीक ठाक चार लुच्चे है
सातों एक साथ बेड़े बेड़े
चारपाई पर सोने में लड़ते हैं
ओड़ना के खींचतान में
बीमार मां से भिड़ते हैं
भूंख है पेट है
भरता नहीं कमजोर हैं
मालिक की भाषा में
सालें पक्के हरामंखोर हैं
सङान्ध है बदबू है गोबर है पकड़िया है
मालिक का कर्जा है
भैस और पड़िया है
फूस का धर है
छप्पर है बरसात है
सांप का डर है अंधेरी रात है
बदन काला है
हाथों में छाला है
जर्जर् झोपड़ी है
दरवाजे पर नाला है
अलाव है आलू है
माधव हैं होरी हैं
गांजा चिलम है डगन है डोरी है
बस इतना ही
इस गांव के तीन पीढ़ी की कमाई है
देखना यही है
कि अब ईक्कीसवी सदी आई

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