Sunday, January 3, 2016



वर्ष भर पूरे
घड़ी का पेन्डुलम हिलता रहा
तारीखें बदलतीं रहीं
समय टिक टिक टिक करता हुआ
चलता रहा
सब कुछ गतिमान था
किन्तु मै परेशान था
क्याेंकि हमें
हमारे आसपास कुछ भी नया
नही दिखाई दे रहा था
मात्र इतने के
दीवालाें की ईटाें मे लगी लाेनी
लाेहे के ज़गलों मे लगे जंग
भुरभुरा कर नीचे गिरने लगे थे
किताबों में फफू़द
सड़कों पर खून कें काले धब्बो के निशान
भीड़ में तबदील जनता
भेड़िए में तबदील शासक
कलेन्डर में तबदील नववर्ष

ग्रीटिंग  कार्ड में तबदील रिस्ते
सबकुछ अतीत जैसा था
घड़ी की पेन्डुलम की तरह
हम सिर्फ हिलते रहे


सुरेश मोकलपुरी

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